Saturday, March 5, 2011

भागती दौड़ती जिन्दगी...

भागती दौड़ती जिन्दगी

लगता हैं अपनी डोर आज जैसे अपने हाथो से छुटते हुए किसी ओर के हाथो में चली गई हैं। बस जिन्दगी अब तो रास्तो पर बस इतना कहते सुनते नज़र आती हैं। भाई सहाब चलो ना, हम तो इतने में ही जाते हैं, पास में तो हैं मीटर से चलो...


जो जगह हमारी हंसी के ठहाको से सुनाई पड़ती थी और यादो में बस जाती थी। आज वो जगह बस रास्तो को बताने भर के लिये रह गई हैं। कमल मन्दिर के पास खड़ा हुँ, अक्षरधाम पार किया हैं

, या इन्दिया गेट से होते हुये पुराने किले कि तरफ जाना हैं। कहा हैं हम इस वक्त के दौरान ये सलझने का तो मौका ही नही मिल पा रहा हैं।

पहले हर हफ्ते हमारी टोली कभी पुराने किले कि वादियों कि सेर के लिये तैयार नज़र आती थी तो कभी इन्डियां गेट के शाम के नज़ारे में मुस्कुराते हुये। पर अब रास्ते कि धुल झाड़ने भर में वक्त गुजर जाता हैं। यहां से वहां, वहां से यहां...

सोचता हुँ क्या आज उन लम्हो को याद करने तक का वक्त मिल पायेगा। जो छुट गये हैं। पता नही...

आज तो जिन्दगी भी वैसे ही नज़र आती हैं, जैसे किसी फोन पर सिर्फ कम्पनी वालो के ही फोन या मैसेज आते हो। आपकी तसल्ली और खुशी के लिये कुछ नही...। बस बैलेंस की तरह जिन्दगी को देखकर ही सन्तुष्ट हो जाते हैं, अभी बचा हैं।

हम भागती दौड़ती इस जिन्दगी में किस चीज को गाढ़ा करने की कोशिश में लगे हैं या आपने लिये कुछ तैयार करने कि दिशा में हैं। शायद अपने लिये किसी दिशा कि खोज में ही हैं। पर वो सब छोड़कर ये ही क्यो? शायद इसके अलावा कुछ छोड़ने के लिये बचा ही नही।