Saturday, August 28, 2010

खेल की दुनियां कहा से आई है...

खेल एक गाढ़ा मगर अपने में कुछ हल्का करने वाला शब्द है। कई लोग अक्सर खेल-खेल में बड़े से बड़े काम कर जाते हैं, जबकि दूसरे कई लोगों के लिए ये काम ठोस रूप में होते हैं। ये सब तभी होते हैं, जब आप अपने हुनर के साथ उस काम में शामिल होते है या अपने रियाज़ का आधार बनाते हैं। खेल की अपनी भाषा होती है, खेल उम्र पहचानता है, खेल लिंग भी जानता है और इसे चुनाव भी पता हैं। खेल बच्चो की दुनियाँ की देन है पर कॉमनवैल्थ में खेले जाने वाले ये खेल किसी टकराव में है हार-जीत में है जो बच्चे नही समझते। यहाँ ये खेल किसी चीज को पाने के लिए है पर बच्चो के खेल किसी चीज़ को पाने के लिए होते सिफ्र अन्नद के लिए होते है।

क्या कॉमनवेल्थ गेम्स में उन खेलों को शामिल किया जाएगा जो गली, नुक्कड़ और छतों की खूबसूरती बन चुके हैं। क्या ऐसे खेल वहां खेले जाएंगे, जो बच्चो की मासूम छुअन से होकर गुजरते हैं। क्या इन खेलों को वहां जगह मिलेगी? अगर नहीं तो इन खेलों का होना खास क्यों?

ऐसे कितने लोग हैं जो ग्यारह दिनों के इस खेल आयोजन से जुड़ने के लिए बेकरार हैं? इन सवालों पर सोचते
हुए कुछ जीवन उभरे।

जब आप छोटे बच्चे होते हैं तो अपकी करी गई हर हरकत आपके संर्दभ में रहने वालो के लिए खेल बन जाती है ।
जब आप बड़ हो जाते हो और इस जीवन को जी रहे होते हो ।
जब आप मैच्योर होते हो तब आपके लिए वो रियाज़ बन जाता है ।
जब आप बुढ़ापे की और होते हो, तब ये सब खेल यादो में समाकर यादे बन जाती है या कहानियों किस्सो में बाहर आने को उतारु रहती है । ये सब पता नही एक रुप रेखा ही है या कुछ और पर कही ना कही ये बहाव में रहा है ।

खेलो का जीवन क्या होता हैं? जहां तक में सोचता हुँ खेलो का जीवन किसी ठहराव में नही हैं, बस ये बदलाव में रहे हैं। जो आप नही खेलोगे तो कोई और खेलेगा। कुछ लोग अपने तनाव को दुर करने के लिए खेल खेलते है जहां तनाव कुछ समय के लिए थम जाता हैं। ये सब कुछ हल्का करने की दिशा में होता हैं। जहां ये प्रक्रियां आपको तनाव से बाहर खीच लाती हैं और तनाव को तोड़ने का रुप होती हैं।
हम भी चाहते हैं हमारे बीच कॉमनवेल्थ गेम्स हो मगर एसे नही जहां हमारी भुमिका सिफ्र और सिफ्र एक दर्शक की हो बल्की ऐसा हो जहां हम भी शामिल हो ।

गली माहौल्ले के कुछ खेल (Local Games)
छुपन-छुपाई, पकड़ा-पकड़ी, पाली, गिट्टे, ऊँच नीच का पापड़ा, पीट्ठु गरम, बरफ-पानी, पैल्लो-दुग्गो, मारम-पीट्टी, खो-खो, लगंड़ी टाँग का पाला, लट्टु, कंचे, रस्सा, गिल्ली-डन्डा, आँख में चोली, अन्ताकक्षरी, चैन, कबड्डी, कटी-पतंग, लोहा-लक्कड़, चोर-पुलिस, चिड़ियाँ-उड़ी, पोसम-पा, कैरम, लुड़ो, अष्टाचक्कन, माचिस-कार्ड, विड़ियो-गेम,,तीन-गोटी, चिड़ी-बल्ला, लास्टिक, टॉयर, लंगड़, फ्रिस्बी, चिब्बी, बोल मेरी मछली कितना पानी,
मुर्ति घुम-घुम, चार-पर्ची, सौला-पर्ची, झुला...

Monday, August 16, 2010

सुलागता माहौल...

सारी रोशनी अंधेरे में तब्दिल हो चुकी थी। सभी अपने सरियानो को समेटे हुए अपने अपने सपनो में खोये हुए थे और कानो में सिर्फ झिंगुरो के टरराने की आवाज़ गूज रही थी। एक तरफ आँखौ में निंद अटखेलिया कर रही थी और दुसरी तरफ बदन चादर में लिपटा हुआ करवटो पर करवट बदल रहा था। इतने में आवाज करती हुई हल्की सी रोशनी उठी। जब तक करवट बदलकर देखा तो तब तक वो रोशनी चिंगारी में तब्दिल हो चुकि थी।वो चिंगारी एक हल्के धुए के साथ तेज होती और हल्के धुए के साथ ही फिकी पड़ जाती। ये लाल रंग की चिंगारी एसा लग रहा था, किसी गहरी सोच में खोई हुई है। ना जाने कितने ही सावालो को अपने अन्दर घुट-घुट कर घोले जा रही है।बस ये रोशनी चिंगारी के साथ कम तेज हुए जाती, और सोच को गहरा किये जाती।

अंधेरे में सिर्फ वही चिंगारी थी जो रोशनी बटोर रही थी। चिंगारी धुए के साथ सुलगते हुए आस-पास के थोड़े हिस्से को अपने रंग में समा लेती। जहां चेहरे का थोड़ हिस्सा भी उसी रोशनी में नज़र आता। बस चिंगारी सुलगती तो एक गहरी सांस के साथ धुआ निकलता और चंद लम्हो के बाद दोबारा चिंगारी सुलग उठती। ये किसी का शौकियाना धुआं उठाना नही था। इसके साथ किसी की चिन्ताए, किसी कि सोच झलक रही थी।जो धुए के साथ उठने कि कोशिश में थी। मगर ये कोशिश कुछ समय बाद चिगारी के खत्म होते ही बन्द हो जाती और धुआ सांसो को गर्म कर देता।और उस चिंगारी के बुझते ही समा फिर कही अधेंरो में खो जाता। जहां आकारो के अलावा किसी चीज को समझ पाना मुशकिल था।