Monday, August 16, 2010

सुलागता माहौल...

सारी रोशनी अंधेरे में तब्दिल हो चुकी थी। सभी अपने सरियानो को समेटे हुए अपने अपने सपनो में खोये हुए थे और कानो में सिर्फ झिंगुरो के टरराने की आवाज़ गूज रही थी। एक तरफ आँखौ में निंद अटखेलिया कर रही थी और दुसरी तरफ बदन चादर में लिपटा हुआ करवटो पर करवट बदल रहा था। इतने में आवाज करती हुई हल्की सी रोशनी उठी। जब तक करवट बदलकर देखा तो तब तक वो रोशनी चिंगारी में तब्दिल हो चुकि थी।वो चिंगारी एक हल्के धुए के साथ तेज होती और हल्के धुए के साथ ही फिकी पड़ जाती। ये लाल रंग की चिंगारी एसा लग रहा था, किसी गहरी सोच में खोई हुई है। ना जाने कितने ही सावालो को अपने अन्दर घुट-घुट कर घोले जा रही है।बस ये रोशनी चिंगारी के साथ कम तेज हुए जाती, और सोच को गहरा किये जाती।

अंधेरे में सिर्फ वही चिंगारी थी जो रोशनी बटोर रही थी। चिंगारी धुए के साथ सुलगते हुए आस-पास के थोड़े हिस्से को अपने रंग में समा लेती। जहां चेहरे का थोड़ हिस्सा भी उसी रोशनी में नज़र आता। बस चिंगारी सुलगती तो एक गहरी सांस के साथ धुआ निकलता और चंद लम्हो के बाद दोबारा चिंगारी सुलग उठती। ये किसी का शौकियाना धुआं उठाना नही था। इसके साथ किसी की चिन्ताए, किसी कि सोच झलक रही थी।जो धुए के साथ उठने कि कोशिश में थी। मगर ये कोशिश कुछ समय बाद चिगारी के खत्म होते ही बन्द हो जाती और धुआ सांसो को गर्म कर देता।और उस चिंगारी के बुझते ही समा फिर कही अधेंरो में खो जाता। जहां आकारो के अलावा किसी चीज को समझ पाना मुशकिल था।

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