आज कलम से...
आज कलम उठाई,
नज़रे टेबल पर रखी कापी पर जमाई ।
और सोचा लिख ड़ालु,
दो-चार पन्ने मैं भी भाई ।
फिर सोचा क्या लिखुं,
सपना फिर या संसार लिखुं ।
फिर एसा लिखने को सोचा,
जो सबसे ही अलग हो ।
ना झुठ हो ना सच,
बस कल्पना कि झलक हो ।
कलम को घिसने लगा तो सोचा,
क्या लिखना इतना आसान है ।
मुर्दा शब्दो के रूप में,
कापी पर भी बना शमशान है ।
फिर नज़रो को बन्द किया,
और जोड़ दिया कुछ शब्दो को ।
जब दोहराया अपने में,
तो समझ ना आने पर वो पन्ना भी फाड़ दिया ।
इस लिखने, समझने की प्रक्रियां में,
कई पन्नो को बली चढ़ा ड़ाला ।
लिखने को कुछ ना मिला,
इस कविता को ही बना ड़ाला ।
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