यह शहर की सनसनी बन चुकी है, डर लगता है की कहीं ये सिर्फ और सिर्फ
पब्लिसिटी स्टंड बनकर ही न रह जाए क्योंकि ये कोई पब्लिसिटी का रूप नहीं है, जहाँ
कुछ लोग इसकी आड़ में अपनी पब्लिसिटी का जरिया तालाशे, ये तो किसी को आत्मा को
झिन्जोड़ देने वाला वो वाक्य है जो अब लोगो से सावल करना चाहता है | ये वो सावल है
जो हम अक्सर लडकियो से लडकियों के लिए किया करते हुए अपने आपको धीरज दे देते है –
“कहाँ जा रही है?, टाइम से लौट आना, अकेले मत जाना, छोटे कपडे मत पहनो, फोन पर
ज्यादा बाते मत करो...” पर इन सवालों की गुंजाइश अब कहा तक बची है?, क्या हम सिंफ
इन चंद सावालो के छाव का आसरा लिए शहर में अभी भी अपने आपको और अपने परिवार को
सुरक्षित महसूस कर पाएंगे??? अखबार के पन्ने पर पड़ा था किसी ने कहा था की ये
घिनोना वाक्य किसी को मौत देने से कम नहीं है, इस दर्दनाक वाक्य से मिले शारीर के
घाव तो भर जायेंगे पर उन घावों का क्या जो ताउम्र के लिए छोड दिए गए है, ये ठीक
किसी को मौत देने के सामान ही है, बिलकुल सही कहा है ये बिलकुल किसी को मौत से बड़ी
मौत देने के सामन है | हाल में दिल्ली में हुई इस घटना ने सबके जहन में एक तस्वीर
और खौफ छोड दिया है, सभी इसके आक्रोश का एक हिस्सा बनते जा रहे है, फर्क है तो बस
इतना की किसी के दिलो में ये आग एक दम सुलग गई तो कोई किसी के दिलो में चिंगारी से
धुआ निकलते-निकलते ये आग रोशन हुई, मीडिया से बेखबर लोगो के लिए उनके कान और आपस
की बाते इस सनसनी से उनको जोड़ते चली गई, कई अनजान लोगो की आपस में बातचीत या आफिस
आते-जाते रहो में इसकी चर्चा, जिससे साफ़ पता चल रहा है की लोगो में इसका घुस्सा
हमेशा ताजा रहेगा, उस लड़की के लिए नहीं तो शायद अपने परिवार की चिंता के लिए | मैं
इस हादसे पर अपना कोई ठोस और मुहर लगाने वाला फैसला तो नहीं कहना चाहूँगा की
“अपराधियों को फांसी” दे दो पर इतना जरुर कहूँगा की इनके लिए बतर से बतर सजा कम ही
होगी | अब फ़ैसल हमारे हातः है क्या हम किसी धारवारिक के एपिसोद कि तरह इसे देखे और
तालिय मरकर चुप हो जाये या ये वक्त है अपनी उस खामोषि और चुप्पी को तोडने का...???
Monday, December 24, 2012
Friday, July 20, 2012
LOW FLOOR VS OLD DTC BUS...
LOW FLOOR VS OLD DTC BUS...
इस दौरान ...
इस दौरान ...
बस चलाने वाले अपनी मर्ज़ी के मालिक बन गये है, कभी बस नही होती रस्तो पर तो कभी एक ही बस इतनी आती है की पूछो मत, बसो मी भीड़ होने के बावजूद भी बसो को हर स्टैंड पर रोक-रोक कर और भरा जाता है, जिससे की लोग बाहर लटकते है और ड्राईवर को यह कहने का मौका मिल जाता है की बस आगे नही चलेगी जब तक दरवाजा बंद ना हो...
लेडिज अपनी तय सीट्स छौड़कर बाकी की सीट्स पर बैठ जाती है, जैसे उन्हे कोई लाभ मिलता हो ऐसा करके, जब उनके लिए सीट्स रीजर्व है तो उन्हे उसका इस्तेमाल करना चाहिए।
ए.सी बस का प्रॉजेक्ट देल्ही में इसलिए आया था की जो लोग परेशान होकर सफ़र नही करना चाहते वो इस बस में सब के साथ सफ़र कर सकते हैं, मगर आज भी लोग अपनी अलग कार का इस्तेमाल करते है जिससे रास्ते अभी भी जाम के हवाले हैं और ए.सी बस इतनी धीरे चलती हैं की रास्ते जाम कर देती हैं, मानो तेज चलने की या कहीं जल्दी पहुँचने की हमारी डिमांड ख़त्म सी होती जा रही है। कही जल्दी पहुँचना हैं या टाइम से पहुँचना तो घर से एक दो घंटा जल्दी चलो यही एक रास्ता हैं।
इन न्यू लो फ्लॉर बस ने स्टाइल तो दिया हैं मगर बस की गति छीन ली हैं। मेरा लाजपत नगर से खिचड़ीपुर पहुँचने में पहले जो समय 30 मिनिट का लगता था वही समय अब एक घंटे से उपर का हो गया हैं...
लो फ्लोर बसो मी इतनी बड़ी-बड़ी खिड़किया तो लगा दी गई है मगर हमेशा दम घुटने का आलम बना रहता है। आज भी पुरानी D.T.C बस न्यू लो फ्लोर बस से सफ़र के लिए अच्छी लगती है। हवादार बस और तेज रफ़्तार दोनो इसकी खूबी है। लो फ्लोर बस तो सरकार की बस वही नीति लगती है जो कहावत में भी है. दस बोलना और दो तोलना... यहाँ सरकार ने वही किया है देल्ही में, दस बोलकर दो तोलकर दे दिया...
Saturday, June 30, 2012
झाँकती निगाहे
आज के रास्ते के दौरान बचपन की वो झलक दौबारा से सामने आ गई । एक करीब चार से पाँच साल का एक बच्चा बस की खिड़की वाली सीट पर बैठने की जिद में खुद के लिए एक खास जगह की डिमांड लिए हुये तैयार था। अपने साथ वालो के हाथो को रोने मचलने के साथ छौड़, उसने अपने लिए बस की खास खिड़की वाली सीट मूलताबी कर ली जहां से वो शहर को किसी लुफ्त के साथ देख सकता था। उस दौरान बस की खिड़की कोई रंग मंच और बच्चा ,बच्चे की झाँकती निगाहे किसी दर्शक की भूमिका रच रही थी।
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