Saturday, September 10, 2011

एक तीसरी जगह...

हर कोई अपने हाथ में लम्बे लम्बे पन्नो को लिये उस भीड़ को चिरते हुये उनकी तरफ बठ़ने की कोशिश में था। पर भीड़ को चिरने की आज सभी की ये कोशिश नाकाम नज़र आ रही थी। और जो जगह हमेशा सिर्फ तीन मशीनो की आवाज़ में घुली मिली रहती थी, वही जगह आज इन शब्दो के दरमियान थी। "एक के साथ एक ही आओ, इतनी भीड़ क्यो लगा रखी हैं? बाकि के बाहर खड़े हो जाओ”। इतने लोगो के जमघट में उन लोगो चेहरे साफ नज़र में थे जो जीरो नम्बर कॉपी करवाने आये थे। और जो जीरो नम्बर की इस कतार में शामिल थे। हाथो में सिमटे हुये पन्ने मोटी मोटी किताबे लिये वो दुकान के हर कौने में अपनी बैठक लगाये अपने हाथो में उन कुछ किताबो के नम्बरो को उतार रहे थे जिसे जीरो कॉपी करवाना हैं। जो इन नम्बरो को उतार लेता वो इस भीड़ नुमा कतार में शामिल हो जाता।

भीड़ तो जैसे कही खत्म होने का नाम ही नही ले रही थी। अब तो उनके लिये एक मशीन भी अलग मुलतबी हो गई थी। मानो की जैसे पुरा का पुरा स्कुल इन दिनो जैसे उस जगह में सीमट आया हो। पर एसा लगता जैसे अभी भी किसी के जुड़ जाने की कसर बाकि थी। पर किसकी यह कह पाना मुश्किल था। बस हर कोई नज़र आता इस दुकान के आस-पास तो उसकी बज़ह फोटोकॉपी करवाना होता। जहँ उनके चेहरे भी बयां कर रहे थे कि उनको यह जगह आज किस लिये खींच लाई हैं। इस जगह की भीड़ उनहे किसी और दुकान पर जाने का रास्ता क्यो नही बता रही। शायद इसलिये क्योंकि यहां फोटोकॉपी का सभी काम आधे दामो पर हो जाता हैं।


सभी स्कूलो की मिली - जुली इस बनने वाली जगह के बीच चलने वाली वो सभी बाते वही थी जो शायद स्कुल में नही होती। सही भी हैं, लोग अक्सर वही करने की कोशिश करते है जो अक्सर वहाँ नही होनी चाहिये। जैसे स्कुल की बाते स्कुल में नही स्कुल से बाहर होती हैं, वही घर की बाते स्कुल की जालियो के दरमियां। स्कुल की और स्कुल के पन्नो की वो सभी बाते स्कुल से निकलकर आज किसी तीसरी जगह में शामिल थी। जो घर जैसी दुसरी जगह की कल्पनाओ से भी बाहर थी। जहाँ आप पुरी तरह स्कुल की इन बातो को शामिल नही कर पाते।

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