एक जगह की तलाश है...
Blog for Reasearch and Write for different place...
Monday, December 24, 2012
सनसनी...
Friday, July 20, 2012
LOW FLOOR VS OLD DTC BUS...
इस दौरान ...
Saturday, June 30, 2012
झाँकती निगाहे
Friday, October 14, 2011
एक जगह...
लोग आपने कदमो की छाप उस पर छोड़ते हुये चलते कोई अपने दोस्तो के हाथो में हाथ डाले एक छलांग लगाते हुये उस पर चढ़ता और निकल जाता। कोई अपनी ही सोच में चलता हुआ गर्म तपते हुये इस चौतरे के उपर से अपनी सोच मे आस्क्रिम खाता निकल जाता। बच्चे अपनी अलग अलग कलाबाजियां करते हुये उस पर से निकल जाते। जाड़ी और कार भी इसी चौतरे के आस पास पार्क कि जाती। वही इस चबुतरे के पास एक मोटर मकेनिक की दुकान हैं जहां लोगो की आवाज़ो से ज्यादा आवाज़े मुझे उनके औजारो और गाडियो की आ रही हैं।
ये दक्षिण पुरी का एक आम चबुतरे हैं जहां पास की दुकान पर स्कुटर या कुछ और चीज़ ठीक करवाने आया शख्स गर्मियो में इसकी तपीश महसुस करने वाला शख्स भी यहां एक पल बैठ अराम फरमाने कि सोचता हैं। जहां एक पल कोई आराम से बैठकर सामने लगी दुकान से ली हुई चाय के प्याले का आन्नद ले सकता हैं। ये आम सा साधारण सा चबुतरा हैं जहां न जाने कितने ही लोगो के कदमो की छाप इस पर मौजुद हैं जो उनके चहलकदमो के यहां पड़ने का आगाज़ कराती हैं। और एक हल्का सा हवा का झोका धुल के कुछ टुकड़ो के साथ इन कदमो की पहचान को अपने में दबा लेते हैं।
कबाडी की दुकान के सामने।...
इस जगह पर बैठे बैठे कई चेहरे मेरी आँखो के सामने से गुजर गए। माफ किजिये इसको सिर्फ और सिर्फ एक जगह कह देना मुनासिफ नही होगा शायद। ये तो एक महकमा है जहाँ लोगो का जमावड़ा समय के बदलाव के साथ अपनी अलग-अलग पहचान बनाने में कायम रहता हैं। किसी समय यहाँ लगे बैन्चो पर लोग आकर ताश के पत्ते बिखेर देते हैं तो ये जगह उस समय के लिये परिवर्तन में आकर अपनी एक अलग पहचान बना लेती हैं। और जुआरियो के अड्डे के नाम से जानी जाती हैं। गर्मी मे धुप से बचने के लिये जब यहाँ लगे पेड़ की छाव और तिरपाल से मिलने वाली हल्की राहत को ठन्डी हवा को महसुस करते हुये कोई आराम से बैठ जाता हैं तो लोग इसे सकुन मिलने वाली जगह के नाम से जानते हैं। यहाँ लगा शहतूत का पेड़ हवा के साथ अपने शहतूत जमीन पर गिराता हैं तो बच्चे इन्हे उठाने की होड में आ जाते हैं।
लोग अपना समय बिताने में यहाँ किसी बोरियत का एहसास नही करते शायद क्योकि ये रास्ता हमेशा आनेजाने वाले लोगो से हमेशा भरा जो रहता हैं। इस जगह में कोई ठहराव न बनाते हुये भी इस रास्ते पर चलने वाले लोग अपने आप इस महकमे से जुड़ाव बना लेते हैं। और यहां बैठे हुये शख्स को अकेलेपन और बोरियत का एहसास नही कराने देते। रास्ते में निकलते कुछ शख्सो में से एक दो शख्स यहां बैठने वाले उस शख्स से दुआ सलाम करते हुये निकलते हैं तो जान पहचान का सिलसिला भी बठने लगता हैं। और निगाहे भी आने जाने वाले शख्सो को पहचानने लगती हैं। और यहां से गुजरने वाले हर शख्स को यहाँ बैठने का न्यौता देती। आवाज़ो का सिलसिला भी महकमे को चहकाये रखने में कामयाब दिखाई पड़ता।
आने-जाने वाले लोगो के साथ ठीया और रेडी वाले साईकिल या रेड्डियो पर अपने सामान को बाहर कि तपीश में बैचने वाले लोग भी यहां कुछ समय रूककर अपने सामान को बैचते और राहत महसुस करते। लोगो के यहां आकर शामिल होने का अपना अपना अन्दाज़ इस महकमे को बदलते रहने में कायम हैं। कोई अपने दोस्त को इस जगह बैठा देख आकर उसके साथ बैठ जाता तो कोई हाथो में बिड़ी का बन्डल लिये और माचिस से एक बिडी को सुलगाते हुये यहां किसी एक बैठक में शरिक हो जाता। कोई बातो से बाते मिलाता हुआ किसी अन्जान शख्स की किसी न किसी बात पर बहस करता हुआ महकमे में शामिल हो जाता। कोई यहां अपनी गाडियो को खड़ी करके चला जाता तो कही लोग धुप में आराम फरमाने आ जाते।
दोस्तो की आपसी बातो के लिये भी एक जगह रखता ये महकमा। अन्जान लोगो को भी एक स्वांद में जोड़ने की खासियत लिये एक जगह जो कई ऐसे लोगो को अपस में जोड़े रखने के लिये कायम हैं। जो आपस में अन्जान हैं। ये महकमा एक एसी जगह हैं जहां बस्ती का हर एक शख्स यहां अपनी भूमिका निभाने आ जाता हैं। इस महकमे के बगल में बनी एक छोटी सी खोखे नुमा दुकान भी इस जगह से अपने एक अनोखे स्वांद में शामि रहती हैं। पुरे दिन तो ये खोखा शान्ति बनाये रखता हैं इस जगह के लिये मगर शाम को शान्ति टुटने पर और दुकान के खुलने पर शान्ति तोड़ इस जगह को अपनी दुकान से मिलने वाली धीमी रोशनी से जगमगा देता हैं।
Saturday, September 17, 2011
मेरा नंबर कब आएगा...
मेरा नंबर कब आएगा आज गुप्ता जी के घर हुमेशा की तरह जमावड़ा तैयार होने लगा था । लोग अपने-अपने घरो से निकलते, जिसमे ज्यादा संखिया औरतों की थी और गुप्ता जी की घर की चौखट पर आकार जमा होने लगते । इतने गुप्ता जी की पत्नी एक लाल रंग का थैला अपने हाथ में लेकर आई । और एक कॉपी और पेन भी उनके हाथो में था । कुछ लोगो का वहाँ आना उस जगाह को तैयार कर चुका था, पर अभी भी सबकी अनहो में किसी के आने और जुड़ने का इंतेजार था, शायद सभी नहीं आए थे । बड़ो की इस महफ़ील में बच्चे भी शामिल थे । जो अपनी आवाज की गूंज के साथ सभी को जमा करने का काम कर रहे थे सभी के घर जाते और उसे आने के लिए कह देते । उस जगह में बच्चे उस वक्त बुलाकर लाने वाले पोस्टमेन की तरह ही थे । पूरी गली इस वक्त एक ही आवाज़ में थी “अरे पर्ची खुल रही हैं, भूल गए क्या आज एक तारिक हैं, पर्ची खुलने वाली है जल्दी आओ ।” और बोलकर आगे निकाल जाते । सभी लोग धीरे-धीरे गुप्ता जी की चौखट के सामने जमा हुए और कुछ खात बिछाकर, कुर्सी लगाकर, और कुछ जमीन पर बैठ गए । और अभी के जमा हो जाने तक रोजाना की बाटो में शरीक हो गए । अब तक सभी लोग आ गए थे खास कर वो जिनहोने पर्ची डाल राखी थी । अब गुप्ता जी की पत्नी अपनी साड़ी को समेटते हुये अपने चबूतरे पर बैठ गई और लाल रंग के बेग के अंदर रखी परचियाँ बाहर निकाली । सभी को कुछ बोलने के साथ अपने हाथो में परचियो को हिलाते हुए जमीन पर पटक दिया । सभी की नज़रे जमीन पर पड़ी परचियो पर गड़ी थी । आस-पास की टोलि में से एक बच्चे को बुलाया और एक पर्ची उठाने को बोला । बच्चे खास इसी लिए तो जमावड़ा लगते हैं वहाँ । अपनी-अपनी सोच में सब खोये थे सोच थी की आज मेरी पर्ची खुल जाये शायद इस बार बहुत खर्च था उन पर हुममेश की तरह और निगाहे सभी की जमीन पर । बच्चे ने भी अपनी लड़खड़ाती उँगलियो से फाटक से दो पर्ची उठा ली और सभी लोग बोल पड़े बेटा एक पर्ची तो वही उसने बाकी पर्ची जमीन पर वापस छौड़ दी और एक अपने हाथ में राहक ली । गुप्ता जी की पटनी ने अपने हाथो में वो पर्ची उससे ली जहां उस बच्चे का काम वहीं खतम हो गया और वो दौबारा उस जघ का हिस्सा बन गया जहां वो पहले था । गुप्ता जी की पत्नी हसी मज़ाक करते हुये पर्ची पर लिखा नाम सभी के बीच बोल दिया । और पर्ची फाड़ कर उसका नाम अपनी कॉपी में दर्ज कर लिया । जिससे उन्हे ये पता रहे की पर्ची किस-किस की खुल चुकी हैं । ये तो सिर्फ उनकी फ़ार्मैलिटि थी किसकी पर्ची खुल चुकी हैं और किसकी खुलना बाकी हैं ये तिह उनकी जुबान पर था । अब धीरे धीरे सभी लोग घर को लौटते नजर आए और शायद यही सोच रहे होंगे मेरा नंबर कब आएगा ।
Wednesday, September 14, 2011
अनजानी पहचान...
आज पापा अलमारी को खोल कर उसमे से कुछ खोजने और तलाश में थे । वो अलमारी को खोले हुये खड़े थे, और आंखो को किसी की खोज़ में व्यस्त किया हुआ था । कभी किसी चीज पर हाथ पढ़ता तो वो उस चीज़ को बाहर निकाल कर रख लेते या उनकी निगाहों के सामने जो चीज़ अडचने पैदा करने की कौशिश करती या आंखो की खोज़ की इस तपिश को कम करने की कौशिश करती, तो वो अपने हाथो से कलाईयो के जौर के साथ एक गैप बनाते हुए ओर अंडर झाकाने की कौशिश करती । कुछ मिलने पर उसे गौर से देखते और वापस रख देते । शायद उनकी खोज़ वो नहीं थी वो कुछ और था, जो खोज़ की इस तलब को बड़ा रहा था ।
कोई लिखा हुआ कागज मिलता तो आंखो की भौओ को चड़ाते हुए आंखो के ऊपर अपना धुंधला पढ़ा हुआ चस्मा अपनी आंखो पर छड़ा लेते । जिससे उनकी आंखो को शब्दो का आकार गाढ़ा और साफ़ नज़र आता । ये चस्मा उनकी आंखो पर कुछ बारीक पढ़ते हुये ही नज़र आता था । जिससे यह एहसास हो रहा था की कुछ बारीक शब्द बिना चसमे के उनकी आंखो में चुभ रहे हैं । जिनहे पढ़ने के लिए आज आंखो पर चस्मा हैं । पापा ने धीरे-धीरे सारी अलमारी खोज़ मारी, पर कुछ जगह अभी भी बाकी थी । अब उन्होने अपनी शादी की एल्बम पर हाथ रखा । और उसे भी बाहर निकाल रख दिया । उसे घर के सभी लोग देखने लगे । जिसके अंदर के सारे चेहरे मोटे तौर पर मेरे दिमाग में एक पुख्ता पहचान लिए हुए थे । उन्होने एक और एल्बम निकाली जिसे मैंने पहली बार देखा था । उन्होने उस एल्बम को साफ किया और अपने लॉकर में से एक पन्नी भी निकाली, जिसमे अपने काम के दस्तावेज़ वो संभाल कर रखते हैं । उन्होने दोनों चीजों को मजबूती से अपने हाथो में पकड़, दूसरे हाथ से अलमारी बंद कर दी और एक तरफ बैठ गये । उसमे भी कुछ ढूंढते हुए एक पुरानी सी ब्लैक एंड व्हाइट फोटो निकाल ली और एलबम को अपने पास में ही रख ली और अपने कागजो में एक कागज़ निकाल कर उस पर वो फोटो लगाने लगे ।
मेरी निगाहे उस एल्बम को देखने की जिज्ञासा लिए कई जाल बुनने पर मजबूर थी । मैंने पापा से पूछा पापा यह किसकी एल्बम हैं । आओर बिना उसे खोलने की इजाजद लिए एल्बम को खोलने लगा । पर पापा ने मुझे कुछ नहीं कहा । इस से यह तो जाहीर था की कुछ पर्सनल नहीं हैं, देखा जा सकता हैं । एल्बम खोलकर देखा तो कुछ नेगेटिव उसमे रखे थे ।उसे रख देने की बजाए दिलचस्पी उसे देखने में बढ़ गई । नेगेटिवे के हर एक हिस्से को अपने सर से ऊंचाई पर रखता और ट्यूब लाईट की रोशनी के दायरे के आगे उसे कर, चेहरो को पहचानने लगता । पर सब फिजूल था । क्योकि कुछ चेहरे तो पहचान में थे । पर ज्यादातर आकारो को धुंधले-पन के कारण समझ पाना मुश्किल था । उसको एक तरफ किया और एलबम को आगे देखने लगा । सभी तस्वीरे पुराने जमाने जैसी थी । ब्लैक एंड व्हाइट और निशचीत चाकौर आकार में । कई फोटो अपनी चमक के साथ-साथ अपने अपने ताजेपन को भी मिटाने लगी थी और कुछ तस्वीरे धुंधली आधे अधूरे हिस्सो में थी । में अपनी दादी के पास वो एल्बम उठाकर ले गया । और उन्हे फोटो दिखा-दिखा कर उन तस्वीरों को उनकी यादों में गाढ़ा करके अपने जहन में उतारने की कौशिश करने लगा । वो हर तस्वीरों को धियान से देखती और उस तस्वीर के बारे में मुझे बताती “किसकी तस्वीर हैं, उनका रिश्ता उस तस्वीर के शक्स से क्या हैं,मेरे कौन लगते हैं, कब की तस्वीर हैं, कोई यादगार लम्हा तस्वीर से जुड़ता हुआ ।” जो मेरे समझने के लिए शायद काफी था, पर जिज्ञासा बहुत थी और जानने की ।
इस प्रक्रिया के साथ काफी तस्वीरों का जमा पुराना आरकाइव मेरे दिमाग में उतार चुका था । जो मेरे लिए किसी को बताने के लिए काफी था । एल्बम में कुछ पुराने अखबारो की कटिंग मिली जिसे बड़ी हिफाजत से संभाल कर रखा हुआ था । दादी उन तुकददों को भी हाथो में उठाते हुये उँगलियो के इशारे से आंखो की पुतलियों को घुमाते हुये उसमे किसी शख्स की खोज़ करती । और अपनी खोज़ पूरी हो जाने पर मुझसे सवाल करती । इसमे से अपने दादा बता कौन हैं । उस तस्वीर में काफी सारे लोग थे जो एक ही पौशाक में खड़े थे । मेरी समझ न आने पर मैं बस अंदाज़ा लगाता और किसी भी शख्स पर उंगली टीका देता तो, वो अपने हाथो में एल्बम लेकर मुझे उनकी पहचान करवाती और उस तस्वीर के बारे में भी बताने लगती की ये तेरे दादा के स्टाफ की तस्वीर हैं जो अखबार में छपी थी । ऐसी कई तस्वीरे मिली जो की मेरे रिश्तेदारों की होते हुये भी मेरे लिए अंजान थी । वो अब इस प्रक्रिया को एक खेल की तरह मेरे साथ करती । किसी शख्स की खोज़ करने को कहती जिसमे कभी में जीतता तो कभी हार जाता पर उससे जुड़ता कैसा तो हमेशा उनके ही पास होता था । और न मिल पाने पर वो खुद ही अपने आप बताने लगती । अब एल्बम तो खतम हो चुकी थी पर अभी भी वो एल्बम के किसी पन्ने को बार-बार पलटती और तस्वीरों को देखकर कुछ सोचने लगती । ये सब मेरे बीच पल भर के लिए आया और मेरी आंखो में समा जाने वाली छवि छौड़ गया । दादा की जवानी कैसी थी । पापा का बचपन कैसा था । वो यादगार लम्हा जो कभी मेरे घरवालो के लिए अहम था । जिसकी पहचान के लिए कुछ छवियो को समेटा हुआ था । आंखे उस चीज को पढ़ चुकी थी जो मेरे लिए पुराना होते हुए भी नया जैसा ही था ।
Saturday, September 10, 2011
एक तीसरी जगह...
भीड़ तो जैसे कही खत्म होने का नाम ही नही ले रही थी। अब तो उनके लिये एक मशीन भी अलग मुलतबी हो गई थी। मानो की जैसे पुरा का पुरा स्कुल इन दिनो जैसे उस जगह में सीमट आया हो। पर एसा लगता जैसे अभी भी किसी के जुड़ जाने की कसर बाकि थी। पर किसकी यह कह पाना मुश्किल था। बस हर कोई नज़र आता इस दुकान के आस-पास तो उसकी बज़ह फोटोकॉपी करवाना होता। जहँ उनके चेहरे भी बयां कर रहे थे कि उनको यह जगह आज किस लिये खींच लाई हैं। इस जगह की भीड़ उनहे किसी और दुकान पर जाने का रास्ता क्यो नही बता रही। शायद इसलिये क्योंकि यहां फोटोकॉपी का सभी काम आधे दामो पर हो जाता हैं।
सभी स्कूलो की मिली - जुली इस बनने वाली जगह के बीच चलने वाली वो सभी बाते वही थी जो शायद स्कुल में नही होती। सही भी हैं, लोग अक्सर वही करने की कोशिश करते है जो अक्सर वहाँ नही होनी चाहिये। जैसे स्कुल की बाते स्कुल में नही स्कुल से बाहर होती हैं, वही घर की बाते स्कुल की जालियो के दरमियां। स्कुल की और स्कुल के पन्नो की वो सभी बाते स्कुल से निकलकर आज किसी तीसरी जगह में शामिल थी। जो घर जैसी दुसरी जगह की कल्पनाओ से भी बाहर थी। जहाँ आप पुरी तरह स्कुल की इन बातो को शामिल नही कर पाते।