Wednesday, July 7, 2010

सामुहिक ठहराव के दो पल...

सामुहिक ठहराव के दो पल...
निजी सामुहिक में कब तबदिल हो जाता है पता ही नही चलता...
जीवन में सामुहिक जगह आपनी जगह आपना आस्तित कब बना लेती है पता ही नही चलता।धीरे-धीरे ये सामुहिकता एक ठोस रुप बनाती हुई जटीलता कि और कब कदम बना लेती है पता ही नही चलता। इसका अपना एक स्वतन्त्र आकार बनता चला जाता है। जो एक खूले मंच की तरह है। जहाँ सभी की आवाजाहीके अपने मायने होते है। और सभी का अपने अंदाज में बहना इसे और सुन्दर बना देता है। तहाँ सभी की चहलकदमी का अपना ही अंदाज होता है। हर किसी की चहलकदमी इसे एक नए सुप का आकार देती है। आर इसमे शामिल हो जाती है।

कई साल पहले एक बंजर जमीन पर इटो से एक आक्रति बनाने का काम चला और कुछ ही समय में इसने एक ठोस रुप लिया और कुछ लोगो ने आपनी आवाजाही से उसे मकान के रुप में ढाल दिया । ये मकान उस सामय बना था जब आँखो को दुर दुर तक ले जाने पर भी कुछ इका-दुक्का ही मकान दिखाई देते थे। वो भी साफ तौर पर नज़र आने में असर्मथ थे। कई किलोमीटर में गिनेचुने मकान ही दिखाई देते थे, ना कोई मकान और ना कोई दुकाने अगर थी भी तो काफी दुर जाना पढ़ता था । वहाँ रहने वाले कुछ लोग दैनिकता की हर चीज से परेशान थे, सभी चीजे उसकी पहुँच से बाहर थी। एसे में पानी की तंगी अलग । इस जगह बसावट बनाने वाले सभी लोगो को पता नही कहाँ कहाँ से पानी का जुगाड करना पढता था।
ऐसे में उस मकान में बसने वाले लोगो ने अपने घर की अधुरे बने मकान के बचे हए हिस्से पर एक हाथ से चलने वाला हैड पम्प लगवा लिया। ये उन्होने अपनी सुविधा के लिइ लगवाया था जिससे उन्हे कही और पानी के लिये नही जाना पड़े। इस हैड पम्प को उन्हिने अपनी सुविधा के लिए लगवाया था जो नीजी था। इससे उनकी परेशनी तो खत्म हुई पर लोगो ने भी वहा पानी भरना शुरु कर दिया। और धीरे-धीरे सभी लोगो को पानी भरने के लिऐ इस जगह का पता चल गया। अब यहाँ इस मकान के सामने हर समय कोई ना कोई पानी भरने के लिए अपने बर्तन लगाए रखता है। यहाँ ये नीजी से कब तबदिलियो में आकर सामुहिक बन गया पता नही चला। समय बितने के साथ साथ उनके आस पास का आकार भी बढ़ता गया, और आस पास मकानो के समुह ने जगह को भर दिया। गाँव के सभी लोग यहां आकर अपने दैनिक इस्तेमाल के लिए पानी भरा करते थे। और पानी भरते - भरते इद दौर के बीच आपस में कुछ इधर उधर की बाते भी हो जाती। एसा लगता की लोग अपने लिए समय निकालने आते हो। पुरे दिन मे कुछ समय एसा होता जब वो समाजिक हो जाते और सामाजिकता को जीने लगते। पर समय की तबदिलियो के साथ साथ एसे सामुहीक ठिकाने और बने जहाँ लोगो ने एसे ही हाथ से चलने वाले हैड पम्प और लगवा लिये कुछ घरो की चार दिवारी में नीजी ही रह गये और कुछ सामुहीक बनते चले गये। पर ये जगह धीरे धीरे चार दिवारी में सिमटने लगी सभी धीरे धीरे इसे अपने घरो मे करने लगे। पानी कि इस परेशानी को देखते हुए कुछ जगहो पर सरकारी हैडपम्प भी लगवाए पर ये ज्यादा दिन तक नही चलपाये क्योकी यहाँ पर देखबाल करने वाला कोई नही था। और ना ही इसके इस्तेमाल पर किसी का प्रतिबंध था ये जगह पुणतह: सामाजिक थी । जहाँ किसी के लिए रोक टोक की गुंजाइश नही थी सभी अपनी मर्जी के मालिक थे। ये जगह जब तक रह सकती थी रही बाद में इनका सिर्फ आकार ही देखने के लिए रह गया। पर काफी लोगो का पानी के पडाव अभी वही था वो कहते थे की रोजाना इस्तेमा के लिए पानी तो कही से भी भर ले पर पीने का पानी तो आपके यहाँ ही मिट्ठा आता है। जहाँ एक तरफ जिसका मकान था वो वो परेशान था की लोग पानी तो भर ले जाते है पर जभ हैड पम्म खआराब हो जाता है तो कोई ठिक नही करवाता तो दुसरी तरफ वो ते सोच के चुप रह जाता कि पानी पिलाना या भरवान पुन्य का काम है। बस यहाँ लोग आते और पानी भरते भरते अपनी दो दो बाते कर जाते। पर कहते है ना तबदिलियाँ बदलाव का ही रुप है। बदलाव तो स्वाभाविक है, हर चीज में बदलाव तो हमेशा चलता रहता है। इसी बदलाव के चलते हुए यहाँ घरो में सरकारी नलके पहुच गए जिसमे समत से पानी आता है। यहाँ पल दो पल की मुलाकाते अब थम गई है। सभी अपने अपने घरो में व्यस्त नजर आते है।

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